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Indian history:19वीं सदी की सात कोयला-चालित प्रेस: पुरानी तकनीक, गर्माहट भरी यादें

Indian history:19वीं सदी की सात कोयला-चालित प्रेस: पुरानी तकनीक, गर्माहट भरी यादें Indian history : आज बिजली की तेज़ और हल्की इस्त्रियों का दौर है, लेकिन एक समय था जब कपड़ों को सीधा ...

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Indian history:19वीं सदी की सात कोयला-चालित प्रेस: पुरानी तकनीक, गर्माहट भरी यादें

Indian history : आज बिजली की तेज़ और हल्की इस्त्रियों का दौर है, लेकिन एक समय था जब कपड़ों को सीधा और चमकदार बनाने के लिए “कोयला-चालित प्रेस” का इस्तेमाल किया जाता था। 19वीं सदी में यह तकनीक आम थी, और पेशेवर धोबियों के पास एक साथ सात-सात प्रेस होती थीं। इनमें से हर प्रेस का ढांचा मोटे लोहे से बना होता था और अंदर जलता कोयला उसकी धड़कन की तरह गर्मी देता था।

कैसे काम करती थी कोयला-चालित प्रेस

Indian history : यह प्रेस एक खोखले लोहे के डिब्बे की तरह होती थी, जिसका ऊपरी हिस्सा ढक्कन की तरह खुलता था। अंदर जलते कोयले या चारकोल को भरा जाता था। किनारों पर बने छोटे-छोटे छेद (वेंट) हवा का प्रवाह बनाए रखते थे, ताकि कोयला जलता रहे और समान रूप से गर्मी दे। लकड़ी या मिट्टी के हैंडल होते थे, जिससे गरम लोहे को पकड़ने में हाथ न जले। जब प्रेस को कपड़े पर चलाया जाता, तो गर्मी और दबाव से कपड़े की सिलवटें गायब हो जातीं और कपड़ा एकदम चमक उठता।

कोयले का इस्तेमाल और चलने का समय

इतिहासकार बताते हैं कि एक बार कोयला भरने पर प्रेस लगभग 20 से 30 मिनट तक लगातार गर्म रहती थी। इस दौरान एक धोबी कई कपड़े इस्त्री कर सकता था। ज्यादा मोटे कपड़ों के लिए गर्मी बनाए रखने को कोयला बीच-बीच में बदला जाता था। बड़े बाजारों और शादी जैसे मौकों पर काम करने वाले धोबी एक साथ कई प्रेस जलाकर रखते थे, ताकि काम रुके नहीं। सात प्रेस रखने का मतलब था – एक ठंडी हो तो दूसरी तैयार हो।

Indian history : इतिहास और विकास

कोयले से गरम होने वाली प्रेस का विचार बहुत पुराना है। माना जाता है कि इसकी शुरुआत चीन में ईसा पूर्व पहली सदी में हुई थी, जब धातु के पैन में अंगारे भरकर कपड़ों पर चलाया जाता था। 17वीं सदी में यह तकनीक यूरोप और एशिया में “बॉक्स आयरन” के रूप में विकसित हुई, जिसमें कोयला रखने के लिए बंद डिब्बा और वेंट बने होते थे। भारत में यह प्रेस ब्रिटिश काल में व्यापक रूप से प्रचलित हुई और धोबी समुदाय के काम का अहम हिस्सा बन गई। इसका कोई एक औपचारिक आविष्कारक नहीं है, बल्कि यह समय के साथ अलग-अलग देशों के कारीगरों के प्रयोगों से विकसित हुई तकनीक है।

आज भी जीवित है यह विरासत

ग्रामीण भारत और कुछ शहरी इलाकों में आज भी कोयला-चालित प्रेस का इस्तेमाल होता है। बिजली न होने वाले क्षेत्रों में यह उपकरण भरोसेमंद साबित होता है। पुराने जमाने की यह प्रेस न सिर्फ तकनीक का नमूना है बल्कि मेहनतकश समुदाय की उस परंपरा की निशानी भी है, जिसमें कपड़ों को सिर्फ सीधा नहीं किया जाता था, बल्कि उनमें मेहनत और धैर्य की गर्माहट भी भरी जाती थी।