बिहार मे Nalanda university की पुकार दिखाई दे रही है।
छह माह तक जलती रही भारत की ज्ञान की ज्वाला, इतिहास की चीत्कार सुनिए उसी की जुबानी”
नालंदा, बिहार।
एशिया की प्राचीनतम और विश्वविख्यात शिक्षा नगरी Nalanda university की मूक पुकार आज फिर जीवंत हो उठी है। इतिहास की मिट्टी तले दबी इस जिंदा विरासत की ज़ुबानी वह दर्द उभर कर सामने आया है, जिसे शायद अब भी हमारी पीढ़ियाँ जान नहीं सकी हैं।
एक कालखंड था, जब नालंदा विश्वविद्यालय 10,000 से अधिक विद्यार्थियों और 1500 से भी ज्यादा आचार्यों से गूंजता था। गुप्त वंश, हर्षवर्धन और पाला राजाओं ने इसे संवारा, सजाया और विश्वपटल पर ज्ञान का एक ऐसा स्तम्भ बना दिया, जिसकी छाया में तिब्बत, चीन, जापान से आए विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। यहां वेद, उपनिषद, चिकित्सा, खगोल, व्याकरण, शल्यविद्या से लेकर बौद्ध दर्शन तक का गहन अध्ययन होता था।
लेकिन बारहवीं शताब्दी में तुर्क आक्रांता बख्तियार खिलजी की कट्टरता ने भारत के भविष्य पर कालिख पोत दी। एक बीमार खिलजी को जब नालंदा के वैद्य राहुल श्रीबद्र ने ‘कुरान की औषधिपरक प्रति’ से चमत्कारिक रूप से ठीक कर दिया, तो उसकी ईर्ष्या और धार्मिक द्वेष ने विकराल रूप ले लिया। वह बौद्ध विचारधारा, मूर्तिपूजा और भारतीय ज्ञान परंपरा का विरोधी था।
खिलजी ने एक दिन नालंदा पर हमला बोल दिया। घोड़े, तलवारें, आग और नफरत के साथ उसके सिपाही विश्वविद्यालय की पवित्रता रौंदते चले गए। उसने आचार्यों, विद्यार्थियों को कत्ल करवा दिया। कुछ शरणार्थी भागते हुए तिब्बत पहुंचे और वहीं से बौद्ध धर्म की एक नई धारा निकली।
सबसे हृदयविदारक दृश्य वह था, जब नालंदा की तीनों प्रमुख पुस्तकालयों — रत्नसागर, रत्नाददि और रत्ननिजरक — को जला दिया गया। उनमें ताम्रपत्रों और भोजपत्रों पर लिखे लाखों ज्ञान के मोती थे। इतने अधिक कि नालंदा की ज्ञान-गंगा छह माह तक धधकती रही।
नालंदा की खोज एक अंग्रेज अधिकारी ने 19वीं सदी में एक चीनी यात्री ह्वेनसांग की डायरी के आधार पर की। तब जाकर दुनिया के सामने वह खंडहर आया जिसने सदियों पूर्व दुनिया को ज्ञान और शांति का संदेश दिया था। 2016 में भारत सरकार ने पुनः खुदाई शुरू करवाई, और UNESCO ने इसे विश्व धरोहर घोषित कर संरक्षित किया।
Nalanda university न केवल शिक्षा का केन्द्र था, बल्कि दुनिया का पहला पूर्णतः आवासीय और सुव्यवस्थित संस्थान था, जहाँ विद्यार्थियों के रहने, खाने, पढ़ने, चिकित्सा और साधना तक की समस्त व्यवस्थाएं थीं। यहाँ प्रवेश कठिन परीक्षाओं के बाद ही मिलता था — 10 में से केवल 3 विद्यार्थी चुने जाते थे।
आज नालंदा खंडहर स्वरूप है, लेकिन उसकी आत्मा, उसकी पुकार और उसकी चीत्कार अब भी हमारे भीतर जिंदा हो सकती है — यदि हम चाहें तो। यह केवल अतीत नहीं, आने वाले भविष्य की नींव है।
क्या आप सुन पा रहे हैं उस शिक्षा नगरी की सिसकती पुकार?
नालंदा अब भी इंतज़ार में है — उस सम्मान के, उस समझ के, और उस पुनर्जीवन के जो कभी भारत को “ज्ञान की भूमि” कहा करते थे।
अगर आप नालंदा जाना चाहते हैं तो पटना हवाई अड्डा (89 किमी), राजगीर रेलवे स्टेशन और सड़क मार्ग से भी आसानी से पहुंच सकते हैं। नालंदा, एक बार फिर आपके कदमों की आहट सुनने को आतुर है।